कभी जब बेसबब हमसे वो यूँ ही रूठ जाए हैं
बहारों के जनाज़े हम ने कन्धों पे उठाए हैं
सुना बिजली गिरी है कमनसीबों के मकानों पर
ये किस रंजिश में उसने मुफ़लिसों के घर जलाए हैं
तुम्हारे हिज्र का आलम यूँ गुज़रा है मिरे दिल पर
के अपनी मौत के ही हमने भी मातम मनाए हैं
तिरी ज़ुल्फ़ें गिरीं खुलकर तो हम भी सोचते रह गए
किसी जलते हुए फागुन में बारिश की घटाएं हैं
तेरी पलकें खुलें तो सर्दियों की धूप होती है
तेरी आँखें झुकें तो गर्मियों की शब के साये हैं
जो पत्ता शाख़ से यूँ टूट कर बिखरा मेरा दिल था
किसी पतझर में हम भी तो ग़मों पर मुस्कुराए हैं
थी पथरीली मिरी राहें तू जिनपर खुल के हँसता था
हंसी के ऐसे झरनों में वो पत्थर भी नहाए हैं
~ ज़ोया गौतम ' निहां '
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..namastey!~