Saturday, February 26, 2022

मज़हब

 किसी चंपा किसी नरगिस का मज़हब ग़र हुआ होता

ज़रा सोचो तो बाग़ों का भी क्या मंज़र हुआ होता
हवाओं का कहीं कोई धरम होता तो क्या होता मिरे सीने में भी साँसों का क्या बलवा हुआ होता


ये सूरज चाँद भी दीनी तक़ाबुल में जो टकराते गहन ही में उलझ जाते न उजियारा हुआ होता

क्या बारिश की कभी कोई कहीं पर ज़ात होती है जो होती तो ज़मीं की प्यास का फिर क्या हुआ होता



( दीनी तक़ाबुल > religious encounter / गहन >eclipse )


~ ज़ोया गौतम ' निहां ' 

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..namastey!~