किसी चंपा किसी नरगिस का मज़हब ग़र हुआ होता
ज़रा सोचो तो बाग़ों का भी क्या मंज़र हुआ होताहवाओं का कहीं कोई धरम होता तो क्या होता
मिरे सीने में भी साँसों का क्या बलवा हुआ होता
ये सूरज चाँद भी दीनी तक़ाबुल में जो टकराते
गहन ही में उलझ जाते न उजियारा हुआ होता
क्या बारिश की कभी कोई कहीं पर ज़ात होती है
जो होती तो ज़मीं की प्यास का फिर क्या हुआ होता
( दीनी तक़ाबुल > religious encounter / गहन >eclipse )
~ ज़ोया गौतम ' निहां '
copyright Ⓒ zg 2022
No comments:
Post a Comment
..namastey!~