कोई ऐसा भी तो मक़ाम हो न हों रास्ते ये शहर न हो गुल-पोश हो कोई गुलबदन यूँ रक़ीब की भी नज़र न हो
मुझे उस गली की तलाश है जहाँ लोग सब महफ़ूज़ हों खिलती रहें किलकारियां और ख़ौफ़ में कोई घर न हो
लिए दर ब दर की आवारगी ये हवाओं का है दिवानापन अब एहतियात मैं क्या करूँ मुझे खुद की ही जो खबर न हो
इस ज़िन्दगी और मौत के मुकालमे में कहाँ हैं हम के खुली हवा भी तो चाहिए जहाँ सांस में ये ज़हर न हो
[ मुकालमा > Dialogue ]
~ ज़ोया गौतम ' निहां '
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..namastey!~