शहर कैसा है सहमे से वो अपने घर को जाते हैं
ये ढलती शाम और पंछी शजर पे चहचहाते हैं
मनाज़िर उस करिश्मे के हुए क़ुदरत को यूँ हासिल
कभी पत्थर पे ही खिल के ये गुल भी खिलखिलाते हैं
कभी मिल जाए जो नर्गिस यकायक इक बयाबां में
तो अपनी धुन में ही भँवरे भी क्या क्या गुनगुनाते हैं
दिसंबर फिर जगाएगा ज़ुबाँ पर स्वाद सरसों का
हवा जब करती है गिद्दे तो मक्के लहलहाते हैं
' निहां 'कजरारी आँखों में किसी क़तरे की थी झिलमिल
उसी क़तरे के कितने अक्स शब में जगमगाते हैं
( मनाज़िर > Scenes )
~ ज़ोया गौतम ' निहां '
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..namastey!~